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ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार’* केस

*कानून में दंड संहिता का अध्याय चाहे जितना बड़ा हो, किताबें चाहें जितनी मोटी हों आपके लिए उनका कोई अर्थ नहीं है*।

आपके लिए पूरा कानून सिर्फ 4 धाराओं और 2 अधिकारियों में सिमटा हुआ है। अगर आपके साथ कभी अपराध हुआ तो आपके हिस्से देश के यही *2* अफसर सबसे बड़े साबित होंगे और कुल *4 धाराएं* ही आपके हिस्से आएंगी।

*सरकारी नियम का उल्लंघन अपराध है*। *अपराध* सिद्ध करने के लिए *कानून* है। *कानून से तय सजा दंड है।*

आपके साथ *2* तरह के अपराध हो सकते हैं। *फौजदारी* और *दीवानी*।

*फौजदारी मतलब क्रिमिनल और दीवानी मतलब सिविल।*

आपके साथ किसी भी तरह का अपराध हुआ हो आपके लिए *पहला न्याय का मंदिर* है पास का *पुलिस थाना।*


*आपके लिए न्याय के देवता हैं थानेदार।* जब आप पहली बार थानेदार के पास जाते हैं *(बिना किसी परिचय और सिफारिश के)* तो थानेदार देवता आपको सामने बैठा कर किसी को इतनी ज़ोर-ज़ोर से डांट रहे होंगे कि आपको लगेगा कि पूरा संसार अपराधियों से भरा है और एक उन्हीं के कंधे पर पूरे देश से अपराध मिटाने की ज़िम्मेदारी है।


अब कानून की बात,नियम कहता है कि थानेदार की ड्यूटी है कि वो आपकी बात सुन कर अगर धारा *154 में आपकी शिकायत दर्ज करे, जिसे सामान्य भाषा में FIR* कहते हैं। अगर उसे एफआईआर का मामला नहीं लगता है तो 155 में सिविल की शिकायत दर्ज करे। दोनों में से एक तो करना ही है। आपकी शिकायत पर इतना ही उसके अधिकार क्षेत्र में है।


क्योंकि आप बिना किसी सिफारिश, बिना किसी पहुंच, बिना गांधी जी के पत्र के उससे मिलने पहुंचे हैं तो आपकी शिकायत न 154 में दर्ज होगी, न 155 में।

आपके हिस्से का कानून यहीं खत्म हो चुका है।


पर आप चाहते हैं कि कुछ हो, शिकायत ईमानदारी से दर्ज हो ही तो आपको *थानेदार* के ऊपर *‘SP साहब’* के पास जाना होगा। वहां आपकी शिकायत की प्रति रख ली जाएगी। होगा कुछ नहीं।

*अब?*

अब आपको एक *वकील* के पास जाना होगा। वकील आपको एक *मजिस्ट्रेट* की अदालत में ले जाएंगे।

*वहां आप शिकायत देंगे जिसे कोर्ट में ‘परिवाद’ कहा जाता है।*

अब आप *न्याय के दूसरे सबसे बड़े देवता* के आगे खड़े हैं। यहां आपके बयान होंगे। फिर तारीखें मिलेंगी। *भाग्यशाली हुए* तो करीब छह महीने निकल जाएंगे, पर आपकी शिकायत दर्ज नहीं होगी।

अब समझिए, मजिस्ट्रेट के पास क्या पावर हैं आपकी शिकायत के संदर्भ में?

वो चाहें तो थानेदार को डपट कर धारा 156 में आदेश दें कि लिखो एफआईआर। दूसरा ये कि वो खुद लिख लें, धारा 200 में एफआईआर। कुछ अपवाद छोड़ भी दें तो आपके केस में कुछ नहीं होगा। लगभग एक साल बाद शिकायत यह कह कर खारिज कर दी जाएगी कि शिकायत नहीं बन रही है।


साल भर में आपके लिए आपके साथ हुए *अपराध के दर्द से बहुत-सा पानी बह चुका होगा। जूते नहीं, आपके पांव ही घिस कर थोड़े छोटे हो चुके होंगे।* अगर आप अपनी लंबाई नापेंगे तो पाएंगे कि आप करीब एक इंच छोटे हो चुके हैं।


वैसे आपके पास एक विकल्प और है। आप सेशन जज साहब के पास जा सकते हैं। *“योर ऑनर* कोई शिकायत सुन ही नहीं रहा है। दो-चार महीने बाद न्याय के ये तीसरे देवता आपसे कह देंगे कि मजिस्ट्रेट ने सही फैसला सुनाया है। *कहानी खत्म।*


*आपके लिए न्याय के सारे दरवाजे बंद।*


*आपके पास एक कानून है - सीआरपीसी की धारा 482*


यहां बहुत बड़े जज साहब के पास *आपका नंबर आते-आते आंख की रोशनी कम हो चुकी हो सकती है, दांत नकली लग चुके हो सकते हैं। और यहां तक पहुंचते-पहुंचते आप भारतीय दंड संहिता से अधिक अपनी जन्म पत्रिका पर यकीन करने लग चुके होते हैं, क्योंकि आप समझ जाते हैं कि जीवन में जो होता है वो सब किस्मत में लिखे से होता है।* यहां जब तक आपका नंबर आएगा तो वही होगा, जो आपकी कुंडली में लिखा है। कुंडली के लिखे को कौन मिटा पाया है?


अब आपके लिए कानून का मतलब किस्मत है। जाने को तो आप सुप्रीम कोर्ट भी जा ही सकते हैं। लेकिन वहां जाना मतलब सीधे देवलोक।


वहां जाना *नज़ीर* हो सकता है। अगर आप गूगल पर *‘ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार’* केस पढ़ेंगे तो पाएंगे कि *पुलिस का आपकी शिकायत नहीं लिखना ही अपने आप में एक अपराध था।* पर उस अपराध में हुआ क्या?

अंतिम सत्य यही कि आप अपनी शिकायत भूल चुके होंगे। आपके साथ धोखा करने वाला मौज काट कर आगे बढ़ चुका होगा। और आपके लिए न्याय पूरा हो चुका होगा।

देश में एक सामान्य आदमी के लिए इतना ही कानून है। इतना ही न्याय है।


बाकी सब बड़े उद्योगपतियों, क्रिकेट वालों, राजनीति वालों और सिनेमा की कहानी वालों के लिए है।साथ न्याय पवन खेड़ा जैसों के लिए भी है, आप अपनी ज़िंदगी में कभी ‘ऑर्डर, ऑर्डर’ करने वाले जज के सामने पड़ ही नहीं पाएंगे।

कोर्ट कचहरी जाइए। छोटे-मोटे काम हों तो ‘न्याय देवता’ से मिल आइए। हां, तभी तक जब तक जूते घिसते हों। पांव घिसने लगे तो समझ जाइए कि आपका न्याय आपकी ‘कुंडली’ में है, कोर्ट में नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो किसी बाबा के यहां लोग अपनी अर्जी लगाने क्यों पहुंचते? लोग शिकायत पत्रिका छोड़ कर ‘जन्म पत्रिका’ के साथ बाबा के पास जाते ही हैं न्याय की उम्मीद में कि कुछ तो हो।


ध्यान रहे हमारे यहां बाबा लोगों का न्यायालय चल ही इसलिए रहा है क्योंकि थानेदार और मजिस्ट्रेट बहुत बिजी हैं बड़े-बड़े केस में। आपकी शिकायत तो बाबा धारा में सीमित है, थाना और मजिस्ट्रेट के पास नहीं।

जो जितना पहले समझ ले, उतना भाग्यशाली।

अंतिम में आपके याचिकाओं में यही लिखा मिलेगा


*NEXT DATE IS NOT GIVEN*


महावीर पारीक

*सीईओ & फाउंडर,legal ambit*

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